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घटते वन, बढ़ती आपदाएं

जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदा, बाढ़, तूफान, भू-स्खलन आदि वैश्विक समस्याएं हैं। इस पर   संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी समय-समय पर अपनी विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से वनों को संरक्षण प्रदान करते हुए जलवायु पर ध्यान केंद्रित करने का सतत प्रयास किया है और लगातार कर रहे हैं।

आज विश्व में विकास की अंधी दौड़ में, बड़ी तेजी से वनों को काटा जा रहा है, जिससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है तथा पृथ्वी पर जीवों के अस्तित्व के लिये खतरा बढ़ता जा रहा है तथा राष्ट्र को आर्थिक हानि हो रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार विगत (2009-2011) में ही भारत में 5339 स्क्वायर किलो मीटर वन क्षेत्र विकास के नाम पर बलि चढ़ गये तथा राष्ट्र को 2000 करोड़ रूपये की आर्थिक हानि हुई।

वनों के घटने के कारण हर वर्ष, वर्षा के दिनों में, भूस्खलन, बाढ़ आदि से करोड़ों रूपये का राष्ट्र को नुकसान उठाना पड़ता है। उदाहरण के लिये पिछले वर्ष 16 एवं 17 जून 2013 को उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा से 5700 यात्रियों व पर्यटकों के जीवन को समाप्त कर दिया तथा बड़ी कठिनाई से सरकारी प्रयासों से 1,17,000 लोगों के जीवन को बचाया जा सका। इसके अतिरिक्त प्रभावित पर्वतीय क्षेत्रों में सड़कों के टूटने, दुकानों, होटलों के नदी में बहने के कारण भी राज्य में भारी जान-माल की क्षति हुई। इसके अतिरिक्त आपदा में 9510 पशुओं की जानें भी गईं, 175 पुल, 1307 सड़कें, 4207 घर तथा 649 पशुघर नष्ट हुए। इसके अतिरिक्त नकदी फसल, जैसे सेब, राजमा तथा अन्य फसलों का उत्पादन भी प्रभावित हुआ।जिससे हिमाचल प्रदेश भी अछूता नही है |हर बर्ष हिमाचल में भी भूस्खलन बढ़ा आदि के मामले अधिक मात्र में बढने लगे है | इसके अतिरिक्त प्रत्येक वर्ष समुद्री सुनामी, फाइलिन आदि तूफान उड़ीसा तथा आन्ध्र के तटीय क्षेत्रों में आते हैं। जिससे करोड़ों रूपये की कृषि फसलें नष्ट होती हैं तथा बिजली व्यवस्था, मकान, जन-जीवन प्रभावित होता है यदि तटीय क्षेत्र पर वनों की उपस्थिति हो तो कुछ हद तक तूफान से होने वाली हानि को रोका जा सकता है।

इन आपदाओं के बढ़ने का मुख्य कारण वनों की अंधाधुंध कटाई है। वनों के कटने के कई कारण हैं जैसे बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, पर्यावरण असंतुलन, ग्लोबल वार्मिंग, अतिवृष्टि, बाढ़, भू-स्खलन, वनाग्नि, भूकम्प, बढ़ता खनन कार्य, औद्योगिकीकरण, समुद्र के किनारे बसे क्षेत्रों में वनों का समय-समय पर आने वाले तूफान में नष्ट हो जाना। अधिक धन कमाने के लिये वन माफियाओं द्वारा दुलर्भ जड़ी-बूटियों तथा लकड़ी की तस्करी हेतु पेड़ों को बड़े पैमाने पर अवैध कटान। पर्यावरण संतुलन के निर्धारित मापदंडों की अवहेलना एवं अनियोजित निर्माण कार्यों से वन क्षेत्र लगातार घटते जा रहे हैं।
वनों का हमारे जीवन में काफी महत्व है। इनसे हमें जीवन रक्षक जड़ी बूटियां, औषधियां आदि मिलती हैं। इनके अलावा इनसे हमें ईंधन आदि भी मिलता है। इसके अतिरिक्त हरे भरे पेड़ों से हमें ऑक्सीजन मिलती है जो जीवित रहने के लिये परम आवश्यक है तथा वृक्षों से पर्यावरण संतुलित रहता है क्योंकि जीवों द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइआक्साइड को पेड़ पौधे प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया में शोषित कर लेते हैं तथा बदले में ऑक्सीजन उत्सर्जन करते हैं। अतः इनके कटने से पर्यावरण असंतुलित हो जाता है। दूसरी ओर वनों के रहने से पेड़ों की जड़ें मिट्टी को बाँधने का कार्य करती हैं जिससे जल-कटाव तथा भू-स्खलन नहीं होता है या कम होता है अतः पेड़ों की उपस्थिति भू-स्खलन को रोकने में अहम भूमिका अदा करती है। 1973 में पर्यावरणविद सुन्दर लाल बहुगुणा तथा चंडी प्रसाद भट्ट द्वारा पर्वतीय क्षेत्रों में चिपको आंदोलन शुरू किया गया जिसमें पर्वतीय क्षेत्र की महिलाएं वन माफियाओं द्वारा वन काटने के समय पेड़ों से लिपटकर पेड़ो को आरी चलाने से रोकने का प्रयास करती थीं। इसी प्रकार कर्नाटक में एक आप्पिको आंदोलन (1993) में पाण्डुरंग हेगड़े के नेतृत्व में चलाया गया था तथा इस प्रकार वनों के संरक्षण हेतु सक्रिय प्रयास किया गया।

भारत में वनों के संरक्षण हेतु 1981 में भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की गई। जिसका मुख्य उद्देश्य वन क्षेत्रों का मापन करना तथा वनों को संरक्षण प्रदान करना है। इसके अतिरिक्त वन सुरक्षा अधिनियम 1980 तथा इसका संशोधन 1981 एवं 1991 में किया गया जिससे वनों को संरक्षित किया जा सके। वन संरक्षण के लिये सरकारी सहयोग के साथ-साथ जन सहयोग भी आवश्यक है। उपरोक्त के अतिरिक्त पर्यावरण संरक्षण हेतु भी भारत सरकार ने एक समिति बना रखी है। जिसमें 18 सदस्य हैं जिनका मुख्य उद्देश्य वनों को संरक्षण प्रदान करते हुए पर्यावरण को संरक्षित करना है तथा समय-समय पर सरकार को जलवायु परिवर्तन के विषय में जानकारी उपलब्ध कराना है।

जैसा कि विदित है कि जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदा, बाढ़, तूफान, भू-स्खलन आदि वैश्विक समस्याएं हैं। अतः समय-समय पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपनी विभिन्न एजेंसियों के माध्यम से वनों को संरक्षण प्रदान करते हुए जलवायु पर ध्यान केंद्रित करने का सतत प्रयास किया है और लगातार कर रहे हैं। इस संदर्भ में निम्नलिखित संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियां जोकि पर्यावरण/पृथ्वी को बचाने हेतु सक्रिय हैं तथा उन्हें इस दिशा में सभी देशों का सक्रिय सहयोग मिल रहा है –

1. प्रकृति का एवं प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण हेतु अन्तरराष्ट्रीय संघ
2. विश्व वन्य जीवन कोष (1960)
3. युनेस्को का मनुष्य एवं जीवमंडल कार्यक्रम (1970)
4. संयुक्त राष्ट्र का पर्यावरण कार्यक्रम (1984)
5. पृथ्वी रक्षा कार्यक्रम
6. पर्यावरण एवं विकास का विश्वव्यापी कार्यक्रम (1984)

वनों के संरक्षण हेतु उपाय

वनों के संरक्षण हेतु सरकार तथा जन सहयोग के साथ सभी का सहयोग अति आवश्यक है तभी वनों को वांछित स्तर पर बचाया जा सकता है। संक्षेप में निम्न कदम उठाये जा सकते हैं:-

1. वनों की कटाई को रोकने हेतु राज्य एवं केन्द्र सरकार को पर्यावरण तथा पारिस्थितिकी का ध्यान रखना चाहिए, कोई भी उद्योग, निर्माण कार्य से पहले पर्यावरण संबंधी आवश्यकता देखना आवश्यक है।

2.  वन तस्करी,अवैधखनन रोकने हेतु कठोर कानून बनाने चाहिए तथा उसका कठोरता से पालन होना चाहिए वर्षासे भूमि रसाव,जंगल में आग को रोकने के लिए ठोस कदम उठाने पड़ेगे   ।

3. वृक्षारोपण मुख्य रूप से जन आंदोलन के रूप में तथा आम जनता में वनों के संरक्षण एवं वृक्ष रोपण के बारे में जन-जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए सेमिनार एवं प्रतियोगितो के मध्य से लोगो को वन मूल्य को समझाना चाहिय |

4. अधिकतर वनों का विनाश, बाढ़, भूस्खलन से होता है अतः इसको रोकने के लिये पर्वतीय क्षेत्रों में मौसम विभाग के केंद्र स्थापित होने चाहिए तथा संचार के माध्यम सुदृढ़ होने चाहिए ताकि संकटकालीन स्थिति में जन-जीवन को समय से बचाया जा सके।

5. जीवाश्म ईंधन के स्थान पर नई ऊर्जा तकनीकों का इस्तेमाल करना चाहिए जैसे सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा, भू-तापीय ज्वार भाटे की ऊर्जा, समुद्र तापीय ऊर्जा, जैव ऊर्जा, न्यूक्लियर ऊर्जा, इत्यादि का इस्तेमाल ईंधन के स्थान पर करके हम वनों को कटने से रोक सकते हैं।

6. प्रत्येक राजकीय/निजी समारोह में वृक्षारोपण को अधिक महत्त्व देना चाहिए लकड़ी बचाने हेतु मकान/दुकान/बड़े-बड़े अपार्टमेन्ट बनाने में लोहे, स्टील का अत्यधिक इस्तेमाल कर सकते हैं।
7.  कार्यालय में पेपर बचाने हेतु ई-मेल, कम्प्यूटर का अधिक प्रयोग करना चाहिए ताकि वनों को अधिक सुरक्षित रखा जा सके।

  1. हिमालय के पर्वत पर झीलों का निर्माण करना चाहिए जिससे बर्षा व ग्लेशियर का पानी झीलों में एकत्रित हो सके वर्तमान की सभी नदिया किसी न किसी झील से निकलती है ।

   

 बढ़ती आपदाओं को रोकने के उपाय

  1. आपदाओं को रोकने में मौसम विभाग का सक्रिय रोल होता है, सटीक भविष्यवाणी से आपदाओं के नुकसान को कुछ हद तक टाला जा सकता है।2. राज्य सरकार का यह दायित्व है कि नदी/नालों, पर्वतों पर निर्माण सावधानीपूर्वक करायें। यह निर्माण नियमानुसार नदी से 200 मीटर की दूरी पर होना चाहिए।नदियों के तटो पर वृक्षारोपण होना चाहिए ,चैकडेम का निर्माण होना आवश्यक है बाढ़ की प्रस्थिति में ज्यादा नुकसान न हो इस लिए अतिआवश्यक है |
    3. पर्वतीय क्षेत्रों में ऊँचे मकान, भूकम्प, बाढ़, भू-स्खलन का शिकार हो सकते हैं अतः कम ऊँचाई के मकान बनाये जाने चाहिए।
    4. उच्च हिमालय में निर्माण व पुनः निर्माण करने से पूर्व भू-गर्भीय, भू-आकृतिक भूकम्प, बाढ़, ग्लेशियर के पिघलने की दर आदि कारकों को ध्यान में रखा जाना चाहिए।
    5. हिमालय के संवेदनशील क्षेत्र में पर्यावरण बचाने हेतु चौड़ी-चौड़ी सड़कों की अपेक्षा छोटे-छोटे मार्ग बनाने चाहिए जोकि भू-स्खलन की स्थिति में भी अधिक सुरक्षित होते हैं तथा जान-माल की सुरक्षा होती है।
    6. आपदा राहत, बचाव, पुनर्वास समितियों का गठन ग्राम/विकास खंड/जनपद स्तर पर कर स्थानीय निवासियों के सहयोग से करना चाहिए तथा उन्हें पर्वतारोहण व बचाव के तकनीक से दक्ष करना चाहिए ताकि संकटकालीन परिस्थितयों में इस समिति का लाभ पीड़ित जनता को मिल सके।
    7. पर्वतीय क्षेत्रों में तीर्थयात्रियों की संख्या सीमित होनी चाहिए तथा इनका पंजीकरण होना, भारी वर्षा के दौरान तीर्थ यात्रियों की धार्मिक यात्रा स्थगित करना चाहिए।

    8. सडक से निकलने वाला मलवा चिन्हित स्थानों पर ही डाला जाए जिसमे वृक्षरोपण किया जा सके साथ ही साथ सभी प्रकार के NGO युवक मंडल महिला मंडल एवं सभी समितियों को जोड़ने की प्रक्रिया आरम्भ करनी चाहिए विशेष कर मन्दिर कमेटियों को इस अभियान में जोड़ा जाना चाहिए |

    इस प्रकार उपरोक्त वर्णित वन संरक्षण के उपायों तथा आपदा को रोकने के उपायों को अपना कर हम वन क्षेत्रों को बढ़ा सकते हैं तथा आपदा से मुकाबला करके भारी जान-माल की होने वाली क्षति से देश को बचा सकते हैं। सिर्फ आवश्यकता है वन संरक्षण के नियमों का कठोरता से पालन करने की, आपदा से निपटने वाली टीम की दक्षता की तथा समय से उठाये गये प्रभावी राहत के कार्यों की है। इन सभी विषय पर लोकहित संस्थान कार्य करना की पहल कर चूका है | हिमाचल प्रदेश में सहकारी सभाएं द्वारा पंजीकृत 60 हजार के करीब मंडलो व् समितियों को जोड़ने का विशेष अभियान चलाया जाएगा तथा जन जागरण अभियान शुरू किया जाएगा यदि सरकार इस पर गौर करे तो यह कार्य शीघ्र आरम्भ किया जा सकता है |

 

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