भारतीय जीवन दर्शन
अव्यक्त ने स्वयं को व्यक्त करने का निश्चय कर लिया और उस परेमश्वर की व्यक्त होने की इच्छा का परिणाम ही यह सुन्दर सृष्टि है। वेदों ने कहा कि जो स्वयं, सत् -चित् आनन्द है उसने ही आनन्दातिरेक के लिए इस जगत् का निर्माण किया। मैं एक हूं। अनेक हो जाऊं। ‘एकोऽहम् बहुस्याम‘। सम्पूर्ण प्राणीजगत में ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति मनुष्य है। चतुर्विध सृष्टि में उद्भिज जो पेड़-पौधों के रूप में दृश्यमान हैं तथा स्वेदज जिन्हें हम अति सूक्ष्म ‘‘जूं‘‘ आदि के रूप में देखते हैं और तृतीय प्रकार की वह सृष्टि जो अंडों से उत्पन्न होती है जिसमें पक्षी तथा सरिसृप आते हैं, देखने को मिलती है। चतुर्थ प्रकार की सृष्टि में जरायुज हैं। इस सृष्टि में पशु एवं मनुष्य की गणना होती है। उत्तरोत्तर गणना में मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट कृति है, यह निर्विवाद सत्य है।
ईश्वर ने मानव को बुद्धि दी, विवेक दिया, उचित एवं अनुचित को समझने की समझ दी। प्राणीजगत् में चैतन्य तो सभी प्राणियांे में है पर चिन्तनशील केवल मानव ही है। संसार की उत्पति में मनुष्य अन्य प्राणियों के आविर्भाव के साथ धरा पर आया । वह क्रमिक विकास के सिद्धान्तानुसार कितने ही अन्य प्राणियों के पश्चात् इस सुन्दर रूप में इस पृथ्वी पर है। यह उत्पति और विकास से सम्बन्धित विषय, विभिन्न मत मतान्तरों के कारण सदैव चर्चा का विषय बना रहेगा। मनुष्य इस धरा के साथ ही उसमें चिन्तनशीलता होने के कारण सहज ही कुछ प्रश्न उठने लगे। अनेकानेक प्रश्नों में आर्यवर्त (भारत) के जिज्ञासु मन ने स्वयं से सर्वप्रथम निम्न प्रश्न किएः-
मैं कौन हूं। मेरा संसार में आने का क्या उद्देश्य है। मुझे यहां आकर क्या करना चाहिए। मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है?
दूसरा प्रश्न जो भारतीय मस्तिष्क को कौंध रहा था वह यह था कि मनुष्य को कैसे जीना चाहिए।
जिस संसार में हम रह रहे हैं वह कहां तक फैला है, क्या हम उस विस्तार के अन्तिम छोर तक उसे देख सकते हैं। इस संसार का स्त्रष्टा कौन है, वह कहां रहता है, क्या वह दृश्यमान है?
हम दैनिक व्यवहार में संसार में देख रहे हैं कि बिना कर्ता (कार्य-निष्पादन करने वाले)के कोई कार्य होता नहीं। हर कार्य के सम्पादन के लिए कोई न कोई करने वाला होता है। उदाहरण के लिए हम खेत-खलियान और गृहनिर्माण लेते हैं। यदि इन्हें मनुष्य न बनाएं तो ये सभी वर्तमान रूप में अस्तित्व में आ ही नहीं सकते। अतः यह कहना पडे़गा कि ये सब मनुष्य ने बनाए हैं। इसी प्रकार जब हम अपने चारों ओर के संसार को देखते हैं, कल-कल निनाद करती सरिताओं को भावविभोर हो अवलोकन करते हैं, हरे भरे वृक्षों और पादपों पर फुदक-फुदक कर चहचाहट करते पक्षियों को सुनते हैं, हरितिमा ओढे़ सधन वनों में पत्रों की मरमराहट सुनते हैं तथा विशाल पर्वत-समूहों और अनन्त सागर से ऊंची उठती तरंगों का आनन्द लेते हैं तो फिर यह प्रश्न उठना स्वभाविक है कि इस सुन्दर संसार को किसने बनाया? यह स्वयं तो बन नहीं सकता। इसे बनाने वाला कोई अवश्य है। यदि हमने इस संसार के सृजनहार को ईश्वर या ब्रहम नाम दिया है तो वह ईश्वर रहता कहां है? विचार करते-करते हम यहां तक तो पहुंच गए कि इस संसार का सृजनहार तो अवश्य है पर उसे खोजे कहां? इस संसार में मनुष्य मात्र की यही अनसुलझी पहेली है।
क्या उस ईश्वर ने केवल यही संसार बनाया जिसे हम देख रहे हैं या अनेकों ब्रहमाण्डों में उसकी अकल्पनीय रचना में अनन्त कृतियां हैं जिनका मानव, उन्नत विज्ञान के द्वारा भी सम्पूर्ण रहस्य नहीं जान पाएगा। यह सब जानने को मानवीय इच्छा ने मनुष्य को खोजी और विकासशील बनाया।
ज्ञात इतिहास इस सत्य का साक्षी है कि इन प्रश्नों के उतर खोजने की पहल विश्व में सर्वप्रथम भारतीय मनीषियों ने की। ये सभी वे प्रश्न हैं जिन पर भारतीय दर्शनों ने विचार किया। जीवन दर्शन की अनसुलझी गुत्थियों को उद्घाटित किया, इस प्रयास और अभ्यास में हम आज जहां पहुंचे हैं, अब हम गर्व के साथ यहां पहुंचकर जब यह कहते हैं कि हम विश्व में सर्वोकृष्ट मानव हैं तो सहज ही हमें अतीत की ओर झांकने की प्रेरणा मिलती है। क्योंकि श्रेष्ठ मानव होने में हमारे त्रिकालदर्शी तत्वचिन्तकों का वह योगदान सराहनीय है जिसके कारण से हमें जीवन जीने की कला प्राप्त हुई। षड्दर्शनों में वेदान्त ने कहा- ‘‘मैं ब्रहम् हूं‘‘ (ब्रहमोऽस्मि)। जिज्ञासा होती है कि यह ब्रहम कौन है? क्या मैं भी ब्रहम हूं जैसा वेदान्त दर्शन कहता है या फिर मैं केवल उसका अंश हूं। जहां तक मेरा विवेक कार्य करता है, मुझे लगता है हम यदि सरल भाषा में कहें तो कहा जाना चाहिए कि हम सब प्राणी उस ब्रहम के ही अंश हैं जिसे वेदान्त ने अवर्णनीय, अनादि, अव्यक्त और अनन्त कहा। मुण्डकोपनिषद् ने कहा कि उस ब्रहम की अनुभूति पर हृदय की सभी अविद्यारूपी ग्रन्थियां टूट जाती हैं, समय-समय पर मन को उद्वेलित करने वाले सभी संशय मिट जाते हैं। ब्रहम के साक्षात्कार से शुभाशुभ कर्म विनष्ट होकर हम द्वन्द्वातीत हो जाते हैं।