2000 वर्ष पहले भूर्ज-पत्रों पर लिखे गए “अग्र-भागवत” का रहस्य आज भी अनसुलझा

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एक कहानी या विजय रहस्य
आवाज़ जनादेश
हम सब जानते हैं ऋग्वेद को विश्व मे प्रथम ग्रंथ का सम्मान मिल चुका।
ऋग्वेद पत्ते पर लिखा गया था ऐसा पत्र जो युगो तक नष्ट नही होता।
और स्याही भी अद्भुत।
कुछ हमारे इतिहास भी जानने की आवश्यकता होगी।
मैं माधव आचार्य कृष्ण प्रिया(वैदिक सायन्स) जी के अनुपस्थिति मे मेरा पहला पोस्ट जो साबरमती गुरुकुल के स्वामी हेमचंद्राचार्य जी के शोध के अनुरूप सब के जानकारी के लिए प्रकाशित कर रहे।लेखक हेमचंद्राचार्य गुरुकुल, साबरमती से जुड़े हैं।हमारे यहाँ भी विज्ञान था, परंतु हम उसे समझ नहीं पाए। आज का विज्ञान यह है कि वह कागज बनाता है और बच्चों से कहता है कि इस कागज पर लिखो कि पर्यावरण को कैसे बचाया जाए। बच्चा लिखता है। जो जितना अधिक लिखेगा, वह उतना अधिक अंक पाएगा और उसे अच्छी डिग्री मिलेगी।
प्रश्न उठता है कि इससे पर्यावरण बचा या नष्ट हुआ।
आखिर ये कागज भी तो पेड़ों को काट कर ही बनते हैं। तो फिर आप जितना अधिक कागज का प्रयोग करेंगे, उतना ही पर्यावरण को नष्ट करेंगे।
परंतु आज हम इसी विरोधाभासी विज्ञान को पढ़ऩे के प्रयास में जुटे हैं।
डिग्री लेकर विज्ञानी बन रहे हैं। पेड़ों को काट कर आत्महंता बन रहे हैं।
हमारा पारंपरिक ज्ञान क्या कहता है?
आज जो कागज बनता है वह पेड़ों को काट कर, रसायनों के प्रयोग से और बड़ी-बड़ी मशीनों के प्रयोग से।
पर्यावरण को इतना नुकसान पहुँचाने के बाद जो कागज बनता है, उसकी आयु कितनी होती है?
बहुत सुरक्षा के साथ रखा जाए तो भी कठिनाई से सौ वर्ष। कागज हम भी बनाते थे।
परंतु हम जो कागज बनाते थे, वह कम से कम सात सौ वर्ष तक सुरक्षित रहता था और उस कागज को बनाने के लिए किसी पेड़ को नहीं काटना पड़ता था।
एक दिया घास होती है।…
उस घास से बिना भारी मशीनों के और बिना रसायनों के प्रयोग के एक सामान्य पद्धति से उससे कागज बनता है, जिसकी आयु होती है सात सौ वर्ष। आप हमारे गुरुकुल में आकर देख सकते हैं।
हम आज भी उस पद्धति से कागज वहाँ बना रहे हैं।
आज कागज पर चमक लाने के लिए उस पर प्लास्टिक की परत चढ़ाई जाती है जिसे लेमिनेशन कहते हैं। हम भी अपने कागज पर लेमिनेशन करते हैं, परंतु वह प्लास्टिक जैसे किसी पर्यावरणनाशक का नहीं होता। हम उस कागज की एक हकीक नामक पत्थर से घिसाई करते हैं और वह कागज एकदम चमकने लगता है।
यह हमारे विज्ञान की एक अहिंसक पद्धति है।
कागज बनाने की यह विधि अब किसी पांडुलिपि में लिखी नहीं मिलती क्योंकि छापाखानों के आने के बाद से ही ऐसी वैज्ञानिक बातों को नष्ट किया गया।
वर्तमान में एक परिवार इस पद्धति को जीवित रखे हुए है। वैसे भी हमारे यहाँ ज्ञान-विज्ञान व्यावहारिक अधिक होता था, पुस्तकीय कम।
इस प्रकार भारतीय ज्ञान परंपरा प्रकृति के साथ मिल कर चलती थी, उसका विनाश नहीं करती थी।
आज का विज्ञान पर्यावरण, व्यक्ति और समाज तीनों का नाश करने वाला है।
इसलिए यह प्रश्न उठता है कि आखिर हमें कैसा ज्ञान-विज्ञान चाहिए। आज जो विज्ञान प्रचलित है, उसमें सत्य-असत्य, अच्छे-बुरे का ज्ञान ही नहीं होता।
हम उलटी दिशा की ओर बढ़ते चले जा रहे हैं।
इसने जो भी व्यवस्था बनाई है, उसका अंतिम परिणाम यही हो रहा है कि मानव जीवन खतरे में आ जा रहा है। इस विज्ञान की अंतिम परिणति मानव जीवन के विनाश में ही हो रही है।
भारतीय विज्ञान का वह पक्ष जो हमारे भौतिक जीवन के लिए उपयोगी है, वह भी आज नष्ट हो रहा है। ऐसे में आध्यात्मिक पक्ष की तो बात ही करना व्यर्थ है।
जब हम भौतिक और व्यवहारिक विज्ञान को ही नहीं बचा रहे हैं तो परोक्ष की बात करने वाले अध्यात्म की रक्षा कैसे करेंगे।
इसी प्रकार हमारे यहाँ स्याही बनाने की कला थी।
आज स्याही भी रसायनों से बनाई जा रही है।
परंतु प्राचीन भारत में स्याही भी प्राकृतिक पदार्थों से बनाई जाती थी।
यदि आप अजंता और एलोरा के भित्ति चित्रों को देखें तो उन चित्रों की आयु कई हजार वर्षों की है। उन चित्रों को बनाने में कैसी स्याही का प्रयोग हुआ होगा, यह विचार करने की बात है। भारतीय परंपरा से बनने वाली स्याही की आयु दो हजार वर्ष है। इसकी एक विधि में 15 लीटर तिल के तेल को जलाया जाता है, उससे 200 ग्राम राख मिलती है।
उस राख को गौमूत्र से संस्कारित किया जाता है।
फिर विभिन्न जड़ी-बूटियों के साथ उसकी 21 दिनों तक घुटाई की जाती है।
इससे जो स्याही तैयार होती है, उसकी आयु दो हजार वर्ष है। इस प्रक्रिया में तिल को जैविक पद्धति से बिना किसी रसायनों तथा यंत्रों के पैदा किया जाता है और फिर उसका तेल निकालने के लिए भी पशु ऊर्जा यानी कि बैलचालित घानी यंत्र का उपयोग करते हैं, आधुनिक मशीनों का नहीं।
इसी प्रकार हिंगलो नामक पत्थर से लाल स्याही बनती है और हरताल पत्थर से काली स्याही
हम सोने से भी स्याही बनाते हैं।
इस प्रकार हमारे यहाँ इतनी उत्कृष्ट रसायन विद्या रही है।
यह रसायन विद्या न केवल मनुष्यों के लिए निरापद थी, बल्कि पर्यावरण संरक्षक और दीर्घकालिक हुआ करती थी।
ये पद्धतियाँ आज भी व्यवहार में हैं और इसे आप हेमचंद्राचार्य गुरुकुल, साबरमती, गुजरात में देख सकते हैं।
प्राचीन भारत में ऋषि-मुनियों को जैसा अदभुत ज्ञान था, उसके बारे में जब हम जानते हैं, पढ़ते हैं तो अचंभित रह जाते हैं।
रसायन और रंग विज्ञान ने भले ही आजकल इतनी उन्नति कर ली हो, परन्तु आज से 2000 वर्ष पहले भूर्ज-पत्रों पर लिखे गए “अग्र-भागवत” का रहस्य आज भी अनसुलझा ही है।
जानिये इसके बारे में कि आखिर यह “अग्र-भागवत इतना विशिष्ट क्यों है?
अदृश्य स्याही से सम्बन्धित क्या है वह पहेली, जो वैज्ञानिक आज भी नहीं सुलझा पाए हैं। आमगांव महाराष्ट्र के गोंदिया जिले की छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की सीमा से जुड़ी हुई एक छोटी सी तहसील है।
इस गाँव के रामगोपाल अग्रवाल सराफा व्यापारी हैं।
घर से ही सोना, चाँदी का व्यापार करते हैं और रामगोपाल ‘बेदिल’ के नाम से जाने जाते हैं।
एक दिन अचानक उनके मन में आया कि असम के दक्षिण में स्थित ब्रह्मकुंड में स्नान करने जाना है।
यह ब्रह्मकुंड या ब्रह्मा सरोवर परशुराम कुंड के नाम से भी जाना जाता है।
असम सीमा पर स्थित यह कुंड प्रशासनिक दृष्टि से अरुणाचल प्रदेश के लोहित जिले में आता हैं।
मकर संक्रांति के दिन यहाँ भव्य मेला लगता है।
ब्रह्मकुंड अग्रवाल समाज के आदि पुरुष/प्रथम पुरुष भगवान अग्रसेन महाराज की ससुराल भी माना जाता है।
भगवान अग्रसेन महाराज की पत्नी माधवी देवी इस नागलोक की राजकन्या थी।
उनका विवाह अग्रसेन महाराज जी के साथ इसी ब्रह्मकुंड के तट पर हुआ था, ऐसा बताया जाता है।
हो सकता हैं, इसी कारण से रामगोपाल जी अग्रवाल ‘बेदिल’ को इच्छा हुई होगी ब्रह्मकुंड दर्शन की।
वे अपने कुछ मित्र-सहयोगियों के साथ ब्रह्मकुंड पहुँच गए।
दूसरे दिन कुंड पर स्नान करने जाना निश्चित हुआ।
रात को अग्रवाल जी को सपने में दिखा कि, ब्रह्मसरोवर के तट पर एक वटवृक्ष है, उसकी छाया में एक साधू बैठे हैं। इन साधू के पास अग्रवाल जी को जो चाहिये वह मिल जायेगा। दूसरे दिन सुबह-सुबह रामगोपाल जी ब्रह्मसरोवर के तट पर गये।
तो उनको एक बड़ा सा वटवृक्ष दिखाई दिया और साथ ही दिखाई दिए,लंबी दाढ़ी और जटाओं वाले वो साधू महाराज भी। रामगोपाल जी ने उन्हें प्रणाम किया तो साधू महाराज जी ने अच्छे से कपड़े में लिपटी हुई एक चीज उन्हें दी और कहा, “जाओं, इसे ले जाओं, कल्याण होगा तुम्हारा।” वह दिन था, नौ अगस्त, 1991.आप सोच रहे होंगे कि ये कौन सी कहानी और चमत्कारों वाली बात सुनाई जा रही है, लेकिन दो मिनट और आगे पढि़ए तो सही। असल में दिखने में बहुत बड़ी पर वजन में हलकी वह पोटली जैसी वस्तु लेकर रामगोपाल जी अपने स्थान पर आए, जहाँ वे रुके थे। उन्होंने वो पोटली खोलकर देखी, तो अंदर साफ़-सुथरे भूर्जपत्र अच्छे सलीके से बाँधकर रखे थे। इन पर कुछ भी नहीं लिखा था। एकदम कोरे।
इन लंबे-लंबे पत्तों को भूर्जपत्र कहते हैं, इसकी रामगोपाल जी को जानकारी भी नहीं थी।
अब इसका क्या करें?
उनको कुछ समझ नहीं आ रहा था।
लेकिन साधू महाराज का प्रसाद मानकर वह उसे अपने गाँव, लेकर आये।
लगभग 30 ग्राम वजन की उस पोटली में 431 खाली, कोरे भूर्जपत्र थे।
बालाघाट के पास गुलालपुरा गाँव में रामगोपाल जी के गुरु रहते थे।
रामगोपाल जी ने अपने गुरु को वह पोटली दिखायी और पूछा, “अब मैं इसका क्या करूँ?”
गुरु ने जवाब दिया, “तुम्हे ये पोटली और उसके अंदर के ये भूर्जपत्र काम के नहीं लगते हों, तो उन्हें पानी में विसर्जित कर दो।”
अब रामगोपाल जी पेशोपेश में पड़ गए।
रख भी नहीं सकते और फेंक भी नहीं सकते।
उन्होंने उन भुर्जपत्रों को अपने पूजाघर में रख दिया।
कुछ दिन बीत गए।
एक दिन पूजा करते समय सबसे ऊपर रखे भूर्जपत्र पर पानी के कुछ छींटे गिरे, और क्या आश्चर्य। जहाँ पर पानी गिरा था, वहाँ पर कुछ अक्षर उभरकर आये। रामगोपाल जी ने उत्सुकतावश एक भूर्जपत्र पूरा पानी में डुबोकर कुछ देर तक रखा और वह आश्चर्य से देखते ही रह गये। उस भूर्जपत्र पर लिखा हुआ साफ़ दिखने लगा।
अष्टगंध जैसे केसरिया रंग में, स्वच्छ अक्षरों से कुछ लिखा था। कुछ समय बाद जैसे ही पानी सूख गया, अक्षर भी गायब हो गए।
अब रामगोपाल जी ने सभी 431 भूर्जपत्रों को पानी में भिगोकर, सुखने से पहले उन पर दिख रहे अक्षरों को लिखने का प्रयास किया।
यह लेख देवनागरी लिपि में और संस्कृत भाषा में लिखा था।
यह काम कुछ वर्षों तक चला। जब इस साहित्य को संस्कृत के विशेषज्ञों को दिखाया गया, तब समझ में आया कि भूर्जपत्र पर अदृश्य स्याही से लिखा हुआ यह ग्रंथ, अग्रसेन महाराज जी का अग्र भागवत नाम का चरित्र हैं।
लगभग पाँच हजार वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने जय भारत नाम का एक बड़ा ग्रंथ लिखा था। उसका एक हिस्सा था, यह अग्र भागवत ग्रंथ।
पांडव वंश में परीक्षित राजा का बेटा था, जनमेजय।
इस जनमेजय को लोक साधना, धर्म आदि विषयों में जानकारी देने हेतु जैमिनी ऋषि ने इस ग्रंथ का लेखन किया था, ऐसा माना जाता हैं।
रामगोपाल जी को मिले हुए इस अग्र भागवत ग्रंथ की अग्रवाल समाज में बहुत चर्चा हुई।
इस ग्रंथ का अच्छा स्वागत हुआ।
ग्रंथ के भूर्जपत्र अनेकों बार पानी में डुबोकर उस पर लिखे गए श्लोक लोगों को दिखाए गए। इस ग्रंथ की जानकारी इतनी फैली कि इंग्लैंड के प्रख्यात उद्योगपति लक्ष्मी मित्तल जी ने कुछ करोड़ रुपयों में यह ग्रंथ खरीदने की बात की।
यह सुन/देखकर अग्रवाल समाज के कुछ लोग साथ आये और उन्होंने नागपुर के जाने माने संस्कृत पंडित रामभाऊ पुजारी जी के सहयोग से एक ट्रस्ट स्थापित किया।
इससे ग्रंथ की सुरक्षा तो हो गयी।
आज यह ग्रंथ नागपुर में अग्रविश्व ट्रस्ट में सुरक्षित रखा गया हैं। लगभग 18 भारतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी प्रकाशित हुआ हैं।
रामभाऊ पुजारी जी की सलाह से जब उन भुर्जपत्रों की कार्बन डेटिंग की गयी, तो वे भूर्जपत्र लगभग दो हजार वर्ष पुराने निकले।
यदि हम इसे काल्पनिक कहानी मानें, बेदिल जी को आया स्वप्न, वो साधू महाराज, यह सब श्रद्धा के विषय अगर ना भी मानें, तो भी कुछ प्रश्न तो मन को कुरेदते ही हैं।..
जैसे कि हजारों वर्ष पूर्व भुर्जपत्रों पर अदृश्य स्याही से लिखने की तकनीक किसकी थी?
इसका उपयोग कैसे किया जाता था?
कहाँ उपयोग होता था, इस तकनीक का?
भारत में लिखित साहित्य की परंपरा अति प्राचीन हैं।
ताम्रपत्र, चर्मपत्र, ताड़पत्र, भूर्जपत्र, आदि लेखन में उपयोगी साधन थे।
मराठी विश्वकोष में भूर्जपत्र की जानकारी दी गयी हैं, जो इस प्रकार है – भूर्जपत्र यह भूर्ज नाम के पेड़ की छाल से बनाया जाता था।
यह वृक्ष बेट्युला प्रजाति के हैं और हिमालय में, विशेषत: काश्मीर के हिमालय में पाए जाते हैं।
इस वृक्ष के छाल का गुदा निकालकर, उसे सुखाकर, फिर उसे तेल लगा कर उसे चिकना बनाया जाता था।
उसके लंबे रोल बनाकर, उनको समान आकार का बनाया जाता था। उस पर विशेष स्याही से लिखा जाता था।
फिर उसको छेद कर के, एक मजबूत धागे से बाँधकर, उसका ग्रंथ बनाया जाता था।
यह भूर्जपत्र उनकी गुणवत्ता के आधार पर दो-ढाई हजार वर्षों तक अच्छे रहते थे।
भूर्जपत्र पर लिखने के लिये प्राचीन काल से स्याही का उपयोग किया जाता था।
भारत में, ईसा के पूर्व, लगभग ढाई हजार वर्षों से स्याही का प्रयोग किया जाता था, इसके अनेक प्रमाण मिले हैं।
लेकिन यह कब से प्रयोग में आयी, यह अज्ञात ही है।
भारत पर हुए अनेक आक्रमणों के चलते यहाँ का ज्ञान बड़े पैमाने पर नष्ट हुआ है।
परन्तु स्याही तैयार करने के प्राचीन तरीके थे, कुछ पद्धतियाँ थी, जिनकी जानकारी मिली हैं।
आम तौर पर काली स्याही का ही प्रयोग सब दूर होता था।
चीन में मिले प्रमाण भी काली स्याही की ओर ही इंगित करते हैं।
केवल कुछ ग्रंथों में गेरू से बनायी गयी केसरिया रंग की स्याही का उल्लेख आता हैं। मराठी विश्वकोष में स्याही की जानकारी देते हुए लिखा हैं -भारत में दो प्रकार के स्याही का उपयोग किया जाता था।
कच्ची स्याही से व्यापार का आय-व्यय, हिसाब लिखा जाता था तो पक्की स्याही से ग्रंथ लिखे जाते थे।
स्याही बनाने की एक विधि इस प्रकार दी गई है।
पीपल के पेड़ से निकाले हुए गोंद को पीसकर, उबालकर रखा जाता था।
फिर तिल के तेल का काजल तैयार कर उस काजल को कपड़े में लपेटकर, इस गोंद के पानी में उस कपड़े को बहुत देर तक घुमाते थे। और वह गोंद स्याही बन जाता था, काले रंग की। भूर्जपत्र पर लिखने वाली स्याही अलग प्रकार की रहती थी। इसकी स्याही बनाने के लिए बादाम के छिलके और जलाये हुए चावल को इकठ्ठा कर के गोमूत्र में उबालते थे।
काले स्याही से लिखा हुआ, सबसे पुराना उपलब्ध साहित्य तीसरे शताब्दी का है।
आश्चर्य इस बात का हैं, कि जो भी स्याही बनाने की विधि उपलब्ध हैं, उन सभी से पानी में घुलने वाली स्याही बनती हैं।
जब कि इस अग्र भागवत की स्याही भूर्जपत्र पर पानी डालने से दिखती हैं।
पानी से मिटती नहीं।
उलटे, पानी सूखने पर स्याही भी अदृश्य हो जाती हैं।
इसका अर्थ यह हुआ, कि कम से कम दो- ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे देश में अदृश्य स्याही से लिखने का तंत्र विकसित था। यह तंत्र विकसित करते समय अनेक अनुसंधान हुए होंगे। अनेक प्रकार के रसायनों का इसमें उपयोग किया गया होगा। इसके लिए अनेक प्रकार के परीक्षण करने पड़े होंगे।
लेकिन दुर्भाग्य से इसकी कोई भी जानकारी आज उपलब्ध नहीं हैं।
उपलब्ध हैं, तो अदृश्य स्याही से लिखा हुआ अग्र भागवत यह ग्रंथ।
लिखावट के उन्नत आविष्कार का जीता जागता प्रमाण।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विज्ञान या यूँ कहें कि आजकल का शास्त्रशुद्ध विज्ञान, पाश्चिमात्य देशों में ही निर्माण हुआ, इस मिथक को मानने वालों के लिए अग्र भागवत ग्रंथ अत्यंत आश्चर्य का विषय है।
यदि भारत में समुचित शोध किया जाए एवं पश्चिमी तथा चीन के पुस्तकालयों की खाक छानी जाए, तो निश्चित ही कुछ न कुछ ऐसा मिल सकता है जिससे ऐसे कई रहस्यों से पर्दा उठ सके।

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