सम्पादक की कलम……..
आवाज़ जनादेश -: भारत के मौजूदा राजनीतिक माहौल से लोगों में काफी निराशा नजर आ रहे है । आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों में पार्टियों से जो थोड़ी−बहुत आशा थी, समय के साथ वो धीरे−धीरे खत्म हो रही है। अधिकतर पार्टियां आम जनता से कट चुकी हैं। वे अब सत्ता प्राप्ति के लिए जनबल की बजाय धनबल और बाहुबल पर अधिक यकीन करती हैं। उनका प्रबंधन जनसंगठनों की तरह नहीं बल्कि प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह होता है। लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व करने का दंभ भरने वाली ये पार्टियां कुछ गिने−चुने व्यक्तियों की मिल्कियत हो चुकी हैं। जो जनप्रतिनिधि इन पार्टियों के बैनर तले चुनकर आते हैं, वे वास्तव में जनता के नहीं बल्कि अपनी पार्टी के आकाओं के एजेंट होते हैं। उन्हें अगर जनता और पार्टी में से किसी एक को चुनना पड़ा तो वे निश्चित रूप से पार्टी को ही चुनेंगे। देश की राजनीति में पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण तक क्षेत्रवाद, जातिवाद और परिवारवाद का बोलबाला है। और ये प्रवृत्ति दिन ब दिन और बलवती हो रही है। लगभग सभी दल साम दाम दंड और भेद से केवल सत्ता हासिल करने में जुटे हुये हैं।
असल में बाजारवाद के चलते पिछले लगभग छह दशकों में पूरी दुनिया में दलीय राजनीति जनोन्मुखी न रह कर महज सत्ताकेन्द्रित हो गयी है। राजनीतिक दल विभिन्न स्वार्थों के प्रतिनिधि या दबाव समूह मात्र रह गए हैं। इस सबके कारण दलीय राजनीति का मूल तकाजा उपेक्षित रह गया। मूल तकाजा यह था कि दल अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के माध्यम से समाज में एक वैश्विक दृष्टि और जनोन्मुखी नीतियों की आधारशिला तैयार करें। जमीनी हालात यह हैं कि आजादी के 67 वर्षों के बाद भी देश की जनता बिजली, पानी, शिक्षा, सड़क, स्वास्थ्य, शौचालय, नाली−खडंजे जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। विकास के जो कार्य हो भी रहे हैं उनकी रफ्तार इतनी धीमी है कि लोगों का सब्र जवाब देने लगा है।
वर्तमान राजनीतिक हालातों पर नजर डालें तो देश भर के राज्यों में अलग−अलग पार्टियों की सरकारें हैं। हम सब का दुर्भाग्य यह है कि कोई भी दल, कोई भी सरकार अच्छे कार्यों में एक−दूसरे के साथ स्पर्धा करने के बजाय गलत कामों में होड़ बनाए हुए है। जब भाजपा वाले यूपी या बिहार में कानून व्यवस्था के बिगड़ने की दुहाई देते हैं तो वहां के सत्तारूढ़ नेता राजस्थान या महाराष्ट्र या मध्य प्रदेश के हालात दिखाने लगते हैं। कांग्रेस वाले ममता बनर्जी के शासन पर उंगली उठाते हैं तो ममता पलटकर कर्नाटक या उत्तराखंड या हिमाचल के नमूने पेश कर देती हैं। सच तो यह है कि कानून व्यवस्था से लेकर संवेदनशील प्रशासन या नेताओं, अफसरों की जवाबदेही आदि के मामले में सभी सत्तारूढ़ पार्टियां एक−दूसरे की तुलना में बहुत घटिया प्रदर्शन कर रही हैं। इसके बाद इस देश की जनता के लिए कुछ भी सुखद निकल सकेगा, इस बारे में संदेह है। वो चाहे यूपी, पंजाब, उत्तराखंड, राजस्थान या अन्य कोई प्रदेश वहां की जनता बार−बार एक पार्टी विशेष के शासन से दुखी होकर दूसरी पार्टी को सरकार सौंपती है लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। कई प्रदेशों की कानून व्यवस्था, भ्रष्टाचार तथा सरकारी संवेदनहीनता का विश्लेषण किया जाए तो तो राजनीतिक दलों में एक−दूसरे को हराने की होड़ में लगी दिखाई देती है। गांधी जी की लिखित सलाह के विपरीत कांग्रेस ने राजनीतिक दल के रूप में स्वयं को प्रस्तुत किया। स्वतंत्रता आंदोलन की साख के कारण कई दशकों तक सत्ता पर उसका एकछत्र नियंत्रण रहा। इसके बावजूद जब देश में प्रगति का उपयुक्त वातावरण नहीं बन पाया, तब लोगों ने कांग्रेस को हटाकर एक नए दल को सत्ता सौंपने का निर्णय किया।
1977 में संपूर्ण क्रांति के नारे के साथ जनता पार्टी का शासन आ गया। देश की जनता को इस बदलाव से बड़ी आशा थी। लेकिन शीघ्र ही सारी आशाएं धूल में मिल गईं। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह और जनता दल के रूप में देश की जनता ने एक और प्रयोग किया। लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। इसके बाद भी कई फुटकर प्रयोग होते रहे। वर्ष 1998 में भारतीय जनता पार्टी को भी सरकार बनाने का मौका मिला। वर्ष 2004 तक यह पार्टी लगातार सत्ता में रही। लोगों का विश्वास था कि भारतीय जनता पार्टी एक ऐसी राजनीतिक शक्ति है जो भारतीय सभ्यता के संरक्षण एवं भारतीय राष्ट्र के पुनरोत्थान के प्रति अन्य दलों की अपेक्षा कहीं अधिक समर्पित है। लोगों का विश्वास था कि जब वे ऐसी समर्पित राजनीतिक शक्तियों को सत्ता पर स्थापित करने में सफल होंगे तो उनके समस्त कार्यों में अनाधिकार हस्तक्षेप की राजकीय तंत्र की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा। राज्य के विभिन्न अंग उनकी सांस्कृतिक एवं सभ्यतानिष्ठ संवेदनाओं का सम्मान करना सीखेंगे। भारतभूमि पर उपलब्ध प्रचुर प्राकृतिक संपदाओं, भारत के लोगों के कौशल एवं विभिन्न क्षेत्रों में उनकी अद्वितीय क्षमताओं का राष्ट्रोत्थान के कार्य में समुचित संयोजन करने का गंभीर प्रयास किया जाएगा। लेकिन, दुर्भाग्यवश ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। निराश भारत की जनता मजबूरी में एक बार फिर कांग्रेस के दरवाजे पर चली गई।
जब से भारत अंग्रेजी शासन से मुक्त हुआ, तब से लेकर आजतक सभी प्रमुख दलों को सरकार चलाने का मौका मिल चुका है। न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि क्षेत्रीय स्तर पर सभी राजनीतिक दल सत्ता का स्वाद चख चुके हैं। लेकिन, कोई भी भारतीय राज्य के स्वरूप एवं उसकी दिशा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं कर सका है। सभी लोग सत्ता में आने से पहले एक तरह की बात करते हैं, किंतु धीरे−धीरे वे भी अन्य नेताओं के रंग में ढल जाते हैं। उन्हें लगता है कि सत्ता से तो इतना ही हो सकता है, ज्यादा कुछ नहीं अंततः वे स्थितियों से समझौता कर बैठते हैं। पिछले दो−तीन दशकों में तो देश ने कई गंभीर आंतरिक मतभेदों, आर्थिक सामाजिक और धार्मिक समस्याओं के समाधान में भारतीय राजनीति और उसके शीर्ष नेताओं की शर्मनाक विफलताओं के अनेक मनहूस दौर देखे हैं। चतुर अंग्रेजों को डिगा देने वाली राजनीतिक इच्छा शक्ति अब कैसे दम तोड़ रही है उसे जनता देख रही है। अफसोस! इन दो−तीन दशकों ने देश को अधिकांश रूप से मनहूस और बोदे, जातिवाद में डूबे भ्रष्टाचार से बिजबिजाते नेता दिए हैं। इस दौर में न केवल राजनीति का दर्दनाक पतन हुआ है अपितु न्याय पालिका और नौकरशाही भी संदेह और अपवादों की चपेट में है। ऐसा लगता है कि जैसे न्यायपालिका अब कार्यपालिका का कार्य करने लगी है।
नेताओं की वजह से देश में एक दारोगा से लेकर डीजी पुलिस तक अपनी नौकरी गिरवी रखकर लूटखसोट में शामिल हैं। बदमाश, गुंडे और माफियाओं के लिए नेता और पुलिस आदर्श शरणदाता के रूप में बदल गए हैं। मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों, विधायकों और सांसदों के आवास देश के अराजकतत्वों के सुरक्षित नेटवर्क के रूप में तब्दील हो रहे हैं। जिन्हें पुलिस ढूंढती फिर रही है वह नेताओं के घरों में या सरकारी गेस्ट हाउसों में या प्रेस क्लबों में मौज मार रहे हैं। जिन्हें जेल की सलाखों के पीछे होना चाहिए वह बीमारी का बहाना बनाकर इलाज के नाम पर पंचसितारा अस्पतालों में भर्ती होकर वहीं से अपना राजनीतिक रैकेट चला रहे हैं। नेताओं की ही फौज के कारण देश में जाति−धर्म और क्षेत्र के नाम पर नंगा नाच हो रहा है।
जनसंख्या जैसी महामारी पर कोई नेता बोलने को तैयार नहीं है। हर पार्टी के शासन का हाल यह है कि पीने के पानी की भारी किल्लत है। कई जगहों पर पानी बहुत मैला, जहरीला आ रहा है। बिजली की उपलब्धता के बारे में बयान कुछ और आते हैं, असलियत कुछ और है। कानून के डर व राज के बावजूद यदि देश के हर हिस्से में, हर पार्टी के शासन में मिलावट धड़ल्ले से जारी है तो इसका एक ही अर्थ है कि सरकारी अमले और सत्तारूढ़ लोगों की मिलीभगत से यह सब हो रहा है। विडम्बना यह है कि पानी और बिजली, श्क्षिा, चिकित्सा सेवाओं के मामले में आम जनता का रवैय्या और सोच भी ठीक नहीं है लेकिन यह घटिया सोच भी नेताओं की ही बनाई हुई है। आर्थिक सुधारों के इस युग में जयललिता व अन्य कई नेता मुफ्त बिजली को और हासिल करने का अधिकार आज भी बनाए हुए हैं। कहने का अर्थ यह है कि देश की कोई भी पार्टी वोट पाने यानी सत्ता चलाने का हक अपनी योग्यता, अपनी सफलताओं और उपलब्धियों के बूते हासिल नहीं करना चाहती। वे बस अन्य दलों की विफलता या बदनामी के बूते पर सत्ता में आना चाहते हैं। वे भूल जाते हैं कि जिन घटिया मुद्दों पर वे अपने विरोधी दल की सरकार को घरेते हैं वही मुद्दे तब उनके गले की फांस बन जाएंगे जब वे सत्ता में आएंगे। हर सेवा और हर वस्तु मुफ्त या सस्ती पाने का लालच देश को वहां ले आया है जहां उन्हें कुछ भी नहीं मिल रहा। जो जीवन के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है वह भी नहीं। उनका जीवन सुखी तो क्या होगा, सुरक्षित तक नहीं है।