हर धर्म की अपनी-अपनी भेड़े

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आवाज़ जनादेश/ राष्ट्रीय डेस्क प्रभारी मनोज
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हर धर्म की अपनी-अपनी भेड़े
दुनिया में लगभग 300 धर्म हैं। हर धर्म की अपनी-अपनी भेड़े हैं, अपने-अपने खेमे हैं। हाँकने के लिये न्यारे-न्यारे गड़रिये हैं। गड़रियों के पास अपनी-अपनी रद्दी अथवा चूक चुकी अप्रासंगिक किताबें हैं। जिनको रटा-रटा कर गड़रिये भेड़ें हाँकते रहते हैं। हर गड़रिया यह कहता है कि उसकी किताब दुनिया की सबसे पवित्र किताब है। भेड़ों का इस तरह ‘ब्रेनवॉश’ किया जाता है कि वो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ खेमे के अंदर हैं। अंधश्रद्धा और अंधभक्ति कूट-कूट कर भर दी जाती है भेड़ो के अंदर। वो मरने-मारने के लिये उतारू रहती हैं अगर कोई उनके खेमे की तरफ आँख उठाकर भी देखे, या उनकी (ज्ञान निचोड़कर सूख चुकी) किताब के बारें में एक शब्द भी बोलने का साहस करे, तभी तो सबसे ज्यादा भेड़ें धर्म की अफीम खाकर आपस में दूसरे खेमे से कत्लेआम कर-कर के मारी गयी हैं। फिर भी भेड़ों को समझ नहीं आता कि अगर धर्म की वजह से साम्प्रदायिक हिंसा/कत्लेआम/युद्ध हो तो वह सबसे बड़ा‘अधर्म’ हुआ। गड़रिये खेमे में बने रहने के लिये तरह-तरह के प्रलोभन देते रहते हैं भेड़ों को, जैसे :-स्वर्ग/जन्नत/हूरों/मुक्ति/मोक्ष इत्यादि-इत्यादि…। हर गड़रिया अपनी भेड़ को यह कहता है कि मात्र उनका खेमा/धर्म ही सर्वश्रेष्ठ है बाकी 299 खेमा/धर्म बकवास/नीचे हैं। गड़रिया उनको यह भी बताता है कि उसके पास जो किताब है वही ईश्वर/गॉड/अल्लाह द्वारा खुद की लिखी हुयी है, हालांकि सारी की सारी किताबें हर खेमे के सबसे पहले अथवा उसके पदचिन्हों पर चलने वाले अनुयायी गड़रियों द्वारा लिखी हुयी हैं। हालांकि भेड़ों में साहस ही नहीं होता कि वह गड़रिये से कोई प्रश्न पूछ सके, या दूसरे खेमे में जाने की भी सोच सके। फिर भी गड़रिया यह चेतावनी भी देता रहता है कि अगर दूसरे खेमे में मिल गयी तो नापाक/अपवित्र/काफिर/विधर्मी/धर्मभ्रष्ट हो जायेगी। हालांकि सभी बाड़ों में भेड़ों की लेड़ों तथा मूत्र की दुर्गंध आती है। दूसरे खेमे में जाने पर सभी देशों की सरकारों ने भी अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिबंध लगा रखे हैं। सरकारें इसे धर्मांतरण कहती हैं।
प्रकृति-धर्म भूल चुकी हैं भेड़ें, जो उनके प्राचीन पूर्वजों ने खेमे बनाने से पहले अपनाया व जीया था। अभी विज्ञान-धर्म के उदयकाल में भी भेड़ों व उनके खेमों को गड़रिये हाँक रहे हैं। यह प्रकृतिपोषी ग्रह इन गड़रियों से आतंकित है। मनुष्य की लिप्साओं से उजड़ रही प्रकृति यदि किसी यत्न से अभी कुछ शतकों तक बचायी भी जा सके, तो भी ये गड़रिये इस विशाल मानव-सभ्यता को मिटाकर ही मानेंगे। दुरंत ना हो इस सभ्यता का… यही शुभेच्छा है।
(एक पोस्ट से संशोधित)

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