अकसर समाचार पत्रों मे केंद्र और राज्य सरकारों की *कमजोर आर्थिक स्थिति* के बारे मे छपता रहता है। 1990 मे शांता सरकार मे एक मितव्ययिता समिति का गठन किया गया था। जिसका काम था मितव्ययिता और नये संसाधनों के विषय में सरकार को सुझाव देना। इस दौरान यह ध्यान मे आया कि *सरकार* सबसे बड़ी खरीददार, *सबसे अधिक खर्चा करती है*, सरकार सबसे बडी मुकदमेबाज है और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि *सरकारे सबसे बड़ी फिजूलखर्ची करने के लिए* भी जानी जाती है। इसमे इस बात का कोई संबध नही है कि सरकार किस पार्टी की है। इस मामले मे सरकारे लगभग एक जैसी होती है। सरकारी चरित्र सरकारी होता है। सरकारे जाने अनजाने या *राजनैतिक मजबूरी मे बड़ा प्रशासनिक ढांचा* खडा कर लेती है और फिर उसे ढोते-ढोते कंगाल हो जाती है। उदाहरण के लिए *हिमाचल मे लोकायुक्त पिछले दो दशको से कार्यरत* है परन्तु एक भी उसके द्वारा की गई कार्यवाही सामने नही आई जिससे उसकी स्थापना को न्यायोचित ठहराया जा सके। *ऐसी ही स्थिति मानव अधिकार आयोग की* है। हिमाचल मे बहुत से *प्राईवेट शिक्षण संसंस्थान बिना जरूरत के खड़े कर दिए* गए हैं। फिर उन्हें रेगुलेट करने के लिये एक रेगुलेशन अथॉरिटी बनाई गई। परन्तु वह पुरी तरह निष्क्रिय नजर आती है। इन निजी *प्राईवेट संस्थानो की मन मर्जी जारी* है। सरकारी गाडियों का बेड़ा हर वर्ष बढता चला जाता है। सरकार मे चलने वाली गाड़ियां बाजार मे उपलब्ध टैक्सी से कहीं महंगी पड़ती है। हमारी मितव्ययिता समिति ने इसके लिए एक विस्तृत योजना बना कर रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। जिसे तत्कालीन मंत्रिमण्डल ने मंजूरी भी दे दी थी। परन्तु *1992 मे सरकार के जाते ही और प्रदेश मे राष्ट्रपति का शासन लागू होते ही* उस योजना को निरस्त कर दिया गया था। क्योंकि वह *योजना अफसर फ्रेंडली न होकर प्रदेश फ्रेंडली* थी।आज इतना ही *शेष भाग के साथ कल फिर मिलेंगे।*