रस्सी पर चढ़ कर पार किया जाता है बेडा ,व्यक्ति को ज्याली या जैड़ी कहा जाता है
यज्ञ आयोजन में दस घंटे लगातार हवन होता है। भुंडा की तिथि आने से छह महीने पहले भुंडा पर्व में रस्सी पर चढ़ने वाले व्यक्ति जिसे ज्याली या जैड़ी कहा जाता है, को भुंडा यज्ञ वाले गांव में आमंत्रित किया जाता है, जिसे रोहड़ू से परिवार सहित आयोजन वाले गांव में आमंत्रित किया जाता है…
गतांक से आगे …
भुंडा उत्सव और परशुराम: यज्ञ आयोजन में दस घंटे लगातार हवन होता है। भुंडा की तिथि आने से छह महीने पहले भुंडा पर्व में रस्सी पर चढ़ने वाले व्यक्ति जिसे ज्याली या जैड़ी कहा जाता है, को भुंडा यज्ञ वाले गांव में आमंत्रित किया जाता है। जिसे रोहड़ू से परिवार सहित आयोजन वाले गांव में आमंत्रित किया जाता है। इसका संपूर्ण व्यय मंदिर के कोष से निकाला जाता है। उत्सव के लिए धन तथा अनाज इलाके के लोगों से एकत्रित किया जाता है और उत्सव से पहले सारे स्थानीय देवी-देवताओं को गांव की ओर से आमंत्रित किया जाता है। ज्याली व्यक्ति के परिवार के सदस्य उत्सव से पहले बगड़ घास इकट्ठा करते हैं व ज्याली इस घास से सौ एक सौ पचास गज लंबा रस्सा अपने हाथ से तैयार करता है, जिसे मंदिर में संभाल कर रखा जाता है। इस रस्से के ऊपर कोई व्यक्ति नहीं जा सकता और न ही इसके समीप जूते ले जाए जा सकते हैं। यदि किसी कारण रस्सा अपवित्र हो जाए तो अपवित्र करने वाले बकरे की बलि देनी होती है। उत्सव वाले दिन रस्सा एक अति दुर्गम स्थान पर पहाड़ी की ऊंची चोटी से नीचे की ओर बांध दिया जाता है। फिर चुने गए वेदा जाति के व्यक्ति को स्नान करवाकर उसकी देवता के रूप में पूजा कर जलसे के रूप में स्थानीय बाद्य यंत्रों की मंगलमयी ध्वनियों से लकड़ी की पीढ़ी पर बैठा दिया जाता है। जिसे रस्से से बांध दिया जाता है। पीढ़ी को अन्य रस्से से पकड़ कर रखा जाता है। ठीक समय आने पर पुजारी के संकेत पर उस रस्सी को जिससे पीढ़ी बांधी गई होती है, उसे काट दिया जाता है। ज्याली पीढ़ी में बैठा हुआ रस्से के साथ लुढ़कता चला जाता है। यदि रस्सा आधे में टूट जाए तो वह यमलोक भी जा सकता है। ज्याली के मरने या जीवित रहने पर दोनों ही स्थितियों में उसकी पूजा देवी-देवताओं की तरह ही होती है। माना जाता है कि भुंडा यज्ञ की शुरुआत परशुराम द्वारा की गई। पहले इसे ‘नरमेघ यज्ञ’ भी कहा गया। परशुराम ने निरमंड में अपनी कोठी में इस यज्ञ के दौरान यज्ञ में नरमुंडों की आहुतियां दी थीं। इसी वजह से आज के निरमंड गांव का नाम तब नरमुंड पड़ा था। हर बारह वर्ष के पश्चात हरिद्वार का कुंभ मेला समाप्त होते ही देव पाठी ब्राह्मण सीधे निरमंड आ जाते थे। तभी से यह परंपरा आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। ‘शांद’ या ‘शांत’ का संबंध समृद्धि से है। यह उत्सव खुंड खश हर बारह साल के बाद मनाते हैं। यह उत्सव गांवों में पहाड़ों की चोटियों पर मनाया जाता है। जिसमें गांव के देवता को पालकी में बाहर लाकर झुलाया जाता है।