सम्पादक की कलम से ……………….
भारत के पूर्व में तीन बार प्रधानमंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी की शख्सियत का निष्कर्ष है। “मौत से ठन गई” उस कविता से मेल खता है | जंहा वास्तविकता में मौत से उनकी लंबे वक्त तक ठनी रही, लेकिन अटल जी जिंदगी की तुलना में मौत को बड़ा मानने को तैयार नहीं थे। वह मौत की जिंदगी सिर्फ दो पल की मानते रहे, जबकि उनके लिए जिंदगी सिलसिलों की लंबी कहानी थी। लिहाजा मौत से आंख-मिचौनी चलती रही, लेकिन अटल जी ने जीवन को भरपूर जिया। अंततः उन्हें भी मौत की शाश्वतता कबूल करनी पड़ी। मौत से उनकी ठनी नहीं, बल्कि उन्होंने मौत का भी आलिंगन किया। बेशक जीवन के 93 मधुमास जीने के बाद अटलजी पंचतत्त्व में लीन हो गए हैं, लेकिन अब भी यकीन नहीं होता कि वह दहाड़ने वाली आवाज खामोश हो गई है। वह भाव-भंगिमाओं वाला जिस्म पाषाण ,नाचती, घूमती, चटखारे लेती आंखें मुंद हो गई हैं। राष्ट्रवाद, राष्ट्रप्रेम और हिंदुस्तान की राजनीति का एक विलक्षण चेहरा खो गया है। यकीन कैसे करें कि देश और लोकतंत्र के अमरत्व का महान पक्षधर और प्रवक्ता ने हमेशा के लिए हम भारतवासियों से विदाई ले ली है, लेकिन सच यह है कि अटल बिहारी वाजपेयी अब हमारे लिए ‘स्मारक’ बन गए हैं। देश ने एक महान और संसदीय चेतना का राजनेता खोया है, साहित्य ने एक स्वभावगत और ओजस्वी कवि खोया है, पत्रकारिता ने एक समर्पित पत्रकार, लेखक खोया है, संसद की दीवारें और सभागार एक आवाज सुनने को लालायित रहेंगी, लेकिन वह महान सांसद चिरनिद्रा में डूब गया है, करोड़ों चाहने वालों ने अपना प्रेरणास्रोत खोया है और वटवृक्ष बनी भाजपा ने अपना प्रथम राष्ट्रीय अध्यक्ष खोया है। मौजूदा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की अटल जी के प्रति ऐसी श्रद्धांजलि में हम भी शामिल हैं। स्वतंत्र भारत में जवाहर लाल नेहरू से नरेंद्र मोदी तक कई प्रधानमंत्री हुए हैं, लेकिन अटल जी अतुलनीय थे। कमोबेश हमने 70 साल की आजादी में ऐसा लोकप्रिय, सर्वमान्य, सार्वभौमिक और बहुस्वीकार्य प्रधानमंत्री नहीं देखा। अटल जी के संदर्भ में हमें दो प्रसंग याद आ रहे हैं। एक, डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ बनाने से पहले आरएसएस से जो 13 नेता मांगे थे, अटल बिहारी वाजपेयी, दीनदयाल उपाध्याय और सुंदरसिंह भंडारी सरीखे नेताओं में शामिल थे, लिहाजा अटल जी भी जनसंघ के स्थापना-पुरुष रहे हैं। दूसरे, 1962 में चीन युद्ध के बाद लोकसभा में विदेश नीति पर चर्चा हो रही थी। तब नौजवान अटल बिहारी ने सांसद के तौर पर जो भाषण दिया था, उसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू उनकी सीट तक गए और भविष्यवाणी की थी-‘बहुत अच्छा बोले। तुम एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनोगे!’ अंततः वह भविष्यवाणी 1996 में सच हुई, जब भाजपा पहली बार लोकसभा में 161 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी और अटल जी प्रधानमंत्री बने। अटल जी प्रधानमंत्री पद के कारण नहीं, बल्कि अपनी शख्सियत के कारण महान और स्वीकार्य नेता बने रहे। हालांकि सेक्युलरवाद और सांप्रदायिकता की तुलना करते हुए उन्होंने खूब कटाक्ष किए, सेक्युलरवादियों को लाठी-डंडे लेकर इकट्ठा होने की बात कही, ताकि भाजपा को भगाया जा सके। अटल जी के ऐसे कटाक्षों पर भी विपक्ष खूब हंसा करता था। उनकी वह बात मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में भी पूरी तरह प्रासंगिक है। प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें इसलिए भी याद रखा जाएगा, क्योंकि पहली बार उन्होंने ही गांव-गांव को सड़कों से जोड़ने, सभी राजमार्गों और नदियों को जोड़ने के कार्यक्रम शुरू किए थे, जो आज भी जारी हैं। अटल जी ने ‘सर्व शिक्षा अभियान’ को शुरू किया, ताकि 6-14 साल की उम्र के बच्चे शुरुआती शिक्षा से वंचित न रह सकें। बाद में 2001 में बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने का कानून भी बनाया। अटल जी ने दूरसंचार क्षेत्र में क्रांति लाने वाली नीति भी बनाई। प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने इतने व्यापक सुधार और बदलाव किए थे कि पूरी फेहरिस्त गिनाना संभव नहीं है, लेकिन इतना दावे से कहा जा सकता है कि यदि 2004 में भी देश उनकी सरकार को जनादेश देता, तो कश्मीर समस्या बहुत कुछ सुलझ सकती थी। बहरहाल अटल जी को याद करते हुए बहुत कुछ कहा जा सकता है। पीवी नरसिंह राव सरकार के दौरान और उससे पहले 1977 की जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री के तौर पर संयुक्त राष्ट्र आम सभा की बैठकों में हिंदी में भाषण देना अटल जी और देश को गौरवान्वित करता है।बहरहाल अटल जी पार्थिव रूप से हमारे बीच नहीं रहे हैं, लेकिन वह कभी मर नहीं सकते। जब तक भारत देश है, उसका लोकतंत्र है, संसदीय राजनीति है, इतिहास-लेखन की परंपरा है और आम आदमी के मौलिक अधिकार हैं, तब तक अटल जी प्रासंगिक रहेंगे।